जल्दबाजी की जरूरत नहीं, शांतचित्त से एकाग्रता के साथ प्रयास महत्त्वपूर्ण – पद्मभूषण देवेंद्र झाझड़िया

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चूरू। पैरा ओलंपिक खिलाड़ी, तीन बार के ओलंपिक पदक विजेता, सर्वोच्च खेल पुरस्कार एवं पद्मभूषण से सम्मानित देवेंद्र झाझड़िया रविवार को चूरू आए। इस दौरान वे अपने प्रशंसकों से मिले और पत्रकारों से बातचीत की।

जिला मुख्यालय स्थित होटल ग्रांड शेखावाटी में पूर्व सभापति गौरीशंकर मंडावेवाला, सहायक निदेशक (जनसंपर्क) कुमार अजय, अंकित बाजौरिया सहित प्रशंसकों ने उनका स्वागत किया। इस दौरान पत्रकारों से बातचीत करते हुए झाझड़िया ने कहा कि देश-प्रदेश में खेल को लेकर माहौल बदल रहा है लेकिन अभी भी इस दिशा में बहुत काम करने की जरूरत है। शिक्षा विभाग को स्पोर्ट्स के लिए सेपरेट बजट अलॉट करना चाहिए ताकि स्कूल में पढ़ने वाले बच्चों को खेलने के लिए बेसिक फैसिलिटी मिल सके। उन्होंने बताया कि वे निकट भविष्य में होने वाले पैरा एशियन गैम्स और दूसरी स्पर्धाओं की तैयारी में जुटे हैं। इसके अलावा वे अप्रैल में ही 2 महीने की ट्रेनिंग के लिए विदेश जा रहे हैं। उनकी हमेशा कोशिश रही है कि खेल के जरिए अधिक से अधिक पदक देश के लिए जीतें। आगे भी यही कोशिश रहेगी कि ज्यादा से ज्यादा बेहतर प्रदर्शन देश के लिए कर सकें। उन्होंने युवाओं के लिए अपने संदेश में कहा कि उन्हें किसी प्रकार की जल्दीबाजी नहीं करनी चाहिए। एक मिनट में कुछ भी नहीं होता है। अपना एक लक्ष्य निर्धारित करें और फिर शांतचित्त होकर एकाग्रता से प्रयास करें। झाझड़िया ने पद्म भूषण पुरस्कार तक की अपनी यात्रा पर चर्चा करते हुए कहा कि उन्हें मिला पद्म भूषण पैरा स्पोर्ट्स के लिए एक बड़ा दिन है। इससे पैरा स्पोर्ट्स में एक उत्साह आएगा और खिलाड़ियों को प्रेरणा मिलेगी। देवेंद्र ने बताया कि जब नौ-दस साल की उम्र में करंट लगने से हाथ कट गया और मैं अस्पताल से वापस घर आया तो लोग मेरे मम्मी-पापा से कहते थे कि यह लड़का तो बर्बाद हो गया, साथ ही इसने आपकी जिंदगी भी बर्बाद कर ही। हाथ कटने पर लोग सोचते थे और कहते थे कि यह लड़का कुछ नहीं कर पाएगा, सब खत्म हो गया है। आज भी वे पल याद आते हैं तो बड़ा भावुक कर देते हैं। दसवीं कक्षा में जब रतनपुरा के सरकारी सीनियर स्कूल से खेल की शुरुआत की थी तो बहुत से लोगों ने कहा कि क्यों खराब हो रहा है, विकलांग भी कभी खेल सकता है क्या। पढाई पर फोकस करो तो क्या पता कोई सरकारी नौकरी मिल जाए तो जिंदगी कट जाए। लेकिन मेरे भीतर एक जोश था, जुनून था, कमजोर नहीं कहलाने की जिद थी। वह इतने बड़े संघर्ष का समय था कि मैं बता नहीं सकता लेकिन मेरे मां-पिता ने हमेशा मुझे हौसला दिया। सबने मना किया लेकिन उन्होंने कभी खेलने के लिए मना नहीं किया। मुझे आगे बढ़ाया। कमजोर नहीं कहलवाने की जिद ने मुझे चैंपियन बनाया।

उन्होंने बताया, कॉलेज में जब सामान्य बच्चों के साथ खेलने जाता था लोग बहुत मजाक उड़ाते थे कि यह सिफारिशी है, यह कहां से आया है, यह कैसे भाला फेंकेगा। बाद में जब मैं जीतता था तो वही लोग आकर कहते थे कि सॉरी हमने आपके लिए यह बोला था। मैं कहता था कि मेरे लिए यह सामान्य बात है। मैं ये शब्द खूब सुन चुका। अब मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता। मुझे इनकी आदत हो गई है। अपने अनुभवों पर चर्चा करते हुए देवेंद्र ने बताया, 1999 तक राजगढ़ के निजी संस्थान, मोहता कॉलेज में पढ़ा। 1999 में जब अखिल भारतीय विश्वविद्यालयी टूर्नामंेट के बाद अजमेर यूनिवर्सिटी का चैंपियन बना तो मैंने सोचा कि सरकारी कॉलेज में जाकर पढूं ताकि बचे हुए पैसे खेल पर लगा सकूं। यह सोचकर एनएम पीजी कॉलेज हनुमानगढ़ में दाखिला लिया। पैसे बचना मेरे लिए महत्त्वपूर्ण था। वहां पढ़ते हुए 1999 से 2003 तक खुद खाना बनाता था। एक हाथ से रोटी-सब्जी बनाता था। वे दिन बड़े संघर्ष के दिन थे।देवेंद्र ने बताया, 2003 में ब्रिटिश ओपन एथलेटिक्स चैंपियनशिप में जब गोल्ड मेडल जीता तो यूके से खेलने का ऑफर मिला कि आप हमारे यहां से खेलो, सारी व्यवस्था हम कर देंगे। संघर्ष से मुक्ति का एक अवसर था, लेकिन मैंने सहजता से मना कर दिया। मैंने कहा कि खेलूंगा तो सिर्फ अपने देश के लिए और ओलंपिक मेडल जीतूंगा। और वही हुआ, 2004 में मैंने एथेंस ओलंपिक में मैंने गोल्ड मेडल जीता।

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