डायरी : कुमार अजय – जमीर और जमीन बेचकर भी सब कुछ नॉट रिचेबल

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चार बेटों के पिता होने के बावजूद त्रेतायुग में राजा दशरथ अंतिम समय में उनमें से किसी एक को भी अपने पास नहीं देखते और इस दुख के साथ दम तोड़ देते हैं। यह उनको मिले श्राप की वजह से था मगर आज तो पूरा युग ही जैसे इस त्रासदी को भुगत रहा है। साहित्य अकादेमी पुरस्कार से सम्मानित साहित्यकार भरत ओला का नया राजस्थानी उपन्यास ‘नॉट रिचेबल’ बिना किसी श्राप के ही इन त्रासदियों और बिडंबनाओं को जी रहे समय की व्यथा-कथा है। हमारे पास जो है, उसका हमें खयाल नहीं है और जो नहीं है, उस कमी के अहसास में हम अपनी जिंदगी को जहन्नुम किए जा रहे हैं। सच पूछिए तो हम जान-बूझकर अपनी जिंदगी में कोई कमी ढूंढते हैं और इच्छाओं के जंगल में हमारे जीवन का मांझा उलझते ही जाता है। मीठे भविष्य के जंजाल तमाम रस के बावजूद हमारे वर्तमान को फीका कर देते हैं क्योंकि इच्छाओं का तो कोई अंत नहीं। हमें जितना मिलता है, उससे हमारी भूख मिटने की बजाय बढ़ती ही जाती है। यह किसी एक रामसरण की कहानी नहीं, हम सभी का किस्सा है।रातोंरात करोड़पति हो जाना आज के इंसान का शगल है। इसके बावजूद नौकरी में नए-नए आने वाले युवा कितने उत्साह, ऊर्जा
और ईमानदारी के साथ दफ्तर का पहला दिन जीते हैं लेकिन धीरे-धीरे जैसे कोई ‘सिस्टम’ उन्हें अपनी गिरफ्त में ले ही लेता है और थोड़े ही दिनों में वे भी ‘बाबूजी’ बन जाते हैं। ‘नॉट रिचेबल’ के बाबू रामसरण अपनी राह आने और राह जाने वाले सीधे-सरल इंसान हैं लेकिन जैसे किसी ‘नॉट रिचेबल’ को अपनी मुट्ठी में थाम लेने की चाह में उनके पास जो है, वह भी नॉट रिचेबल हो जाता है। बाबूजी अपनी महत्त्वाकांक्षाओं का आसमान नापने के चक्कर में न केवल अपने चरित्र को खोते हैं, अपितु अपना सुख-चैन और सेहत खोते हुए उपन्यास के अंत तक अपने प्राणों से भी हाथ धो बैठते हैं। कोई एक वाक्य किस प्रकार आदमी के सपनों को गेड़ चढ़ा देता है और ऐसी अंधी दौड़ मंे शामिल कर देेता है कि फिर वापस मुड़कर देखना संभव ही नहीं हो पाता, यह हम अपने जीवन में देखते ही हैं, इसलिए उपन्यास का कथानक कोई चौंकाने वाला नहीं है लेकिन फिर भी आम जन जीवन में जुड़ी इसकी कथावस्तु और भरत जी की संवाद शैली पाठक को अपने साथ जोड़े रखती है। उपन्यास के पात्र भी हमें अपने आसपास के लोग मालूम होते हैं, जिनसे हम कहीं न कहीं रोज मिलते हैं, महसूस करते हैं।बाबू रामसरण के बेटे पदमेस को पढाई के लिए कोटा भेजने की चिंताओं से उपन्यास शुरू होता है और बेटे की पढाई के लिए फंड जुटाने की मुहिम में घूस-चोरी-सीनाजोरी-डकैती समेत सारे दंद-फंद, छल-छंदों से होते हुए बाबू रामसरण की मृत्यु के साथ खत्म होता है। बेटे को विदेश भेजने के सपने को साकार करने के लिए अपना जमीर और अपनी जमीन दोनों बेच देने वाले बाबू रामसरण ब्रेन हेमरेज के बाद अपने अंतिम समय में उसकी एक झलक पाना तो दूर, उससे मोबाइल पर बात करने तक को तरस जाते हैं।
उपन्यास के नायक बाबू रामसरण ही नहीं, उसके अफसर बीडीओ फतेहसिंह धायल भी इसी कुंठा से घिरे हैं कि उनका बेटा पढाई लिखाई में ठीक नहीं है, वरना बेटा विदेश जाता और वे इस अधम नौकरी में नहीं उलझे होते। जब तक बाबू रामसरण अपनी सामान्य जिंदगी में है, पचपन के होकर भी वे पैंतालीस के लगते हैं लेकिन जैसे ही बीडीओ साब अपने एक वाक्य से उन्हें बेटे को विदेश भेजने की जुगत में लगा देते हैं, तो कौनसा अनर्थ है जो वे नहीं करते और असमय ही बुढ़ाते हुए प्राण दे देते हैं। दो किलो नींबू की घूस से शुरू हुई उनके गिरने की कहानी निरंतर नए आयाम तो रचती ही है, लेकिन हद तो तब होती है जब वे मिलने आए शराबी मास्टर की जेब से हजारों रुपए मौका देखकर उचका लेते हैं। यही नहीं, अपनी बुआ के बीडीसी मेंबर बेटे का सौदा तो भावी ‘प्रधान’ जी से करते ही हैं, उन बीस लाख को भी अपने गोतीभाई गुंडे रणधीर की मदद से निपटा देते हैं।देवीलाल के चुनाव के बहाने कथा में आया प्रसंग आज की राजनीति की सारी बुराइयों को तो अभिव्यक्त करता ही है, जनता के चुने ‘लोकप्रिय’ नायक किस प्रकार नोटों और दूसरे प्रलोभनों में बिक जाते हैं, लोक के इस तंत्र की भी कहानी कहता है। किसी भी चुनाव में भाग नहीं लेने वाला रामसरण अपनी महत्त्वाकांक्षाओं में उलझा किस प्रकार चुनावी राजनीति के भी सारे षडयंत्रों का सक्रिय भागीदार बनता है, यह देखने वाली बात है। ऑफिस का सामान्य कामकाज हो, चुनाव हो या कोई दूसरा अवसर, सब जगह मैनेजमेंट जानने वाले मेकर बन जाते हैं और बाकी जोकर बनकर रह जाते हैं, लेकिन गलत ढंग से किए गए अर्जन का विसर्जन सारे काते हुए को कपास कर देता है और कुदरत के न्याय को इंगित करता है।ठेठ आंचलिक मुहावरों के साथ, लोक में डूबी भरतजी की सरस भाषा और प्रभावी संवाद उपन्यास की खासियत है। पात्रों के संवाद उपन्यास की कथावस्तु को तो आगे बढाते ही हैं, मनोविज्ञान पर भी लेखक की पकड़ को दर्शाते हैं। दफ्तर से जुडे संवाद देश के दफ्तरों की ‘हरि अनंत हरि कथा अनंता’ दशा को दर्शाते हैं तो औरतों की आपस की गपशप भी लेखक के चीजों को पकड़ने के एक ही अलग ही रंग-ढंग को सामने लाती है।अंधी महत्त्वाकांक्षाएं व्यक्ति का चरित्र ही नहीं छीनती, आपसी रिश्तों के भीतर के रस को भी निचोड़ लेती हैं। बेटे को महत्त्वाकांक्षाओं के रथ में सवार करता रामसरण, यह भूल जाता है कि जिस फूफेरे भाई देवीलाल के साथ वह इतना बड़ा छल कर रहा है, उसी देवीलाल के पिता ने उसके पिता को सरकारी नौकरी दिलवाई थी। खून के इस रिश्ते का खून तो वह करता ही है, अहसान के रिश्ते को भी भूल नुगराई पर उतर आता है। एकल परिवारों में पल रहे हम क्या जानें कि हमारे बेटे और बेटी का जो रिश्ता है, वही तो हमारे पिता और बुआ का रहा होगा। हम किसके लिए किसका खून किए जा रहे हैं। एक साथ के साथ छल करके हम दूसरे के साथ कैसे न्याय कर सकते हैं लेकिन दिल है कि मानता नहीं।
अपनी अधूरी इच्छाओं और अंधी लालसाओं में किस प्रकार हम बच्चों से उनका बचपन और उनकी रूचियां और उनके सपनों की जिंदगी छीन लेते हैं, यह उपन्यास में साफ देखने को मिलता है। डायरी के बहाने पदमेस की मनोदशा भी खूब अभिव्यक्त होती है। गुरप्रीत से अपनी दोस्ती की बात वह लिखता है तो टीचर के दोहरे चरित्र को भी दर्शाता है। पदमेस लिखता है कि उसे चित्र कोरणा पंसद है लेकिन वह अपने पिता की इच्छा के लिए इंजीनियर बनेगा, पैसे कमाएगा।
दौलत की महिमा को स्थापित करती ‘परसी, परसा, परसराम’ जैसी उक्तियों को भले ही हरिया सारण के हरचंद और चौधरी हरचंद सहारण बनने में चरितार्थ होते हुए हम देखें लेकिन आमतौर पर तो समाज को यह स्थापना खा ही रही है। फिर याद आती है डॉ कृष्णाकांत पाठक की वह बात कि जब आप किसी व्यक्ति के रौब-रुतबे, दौलत से उसे सम्मान देंगे तो फिर वह आदमी क्यों बनेगा। खैर, उपन्यास अपनी मूलकथा में यह मूल्य स्थापित करता है कि चोरी का माल मोरी में चला जाता है और एक बार की हुई गलती आजीवन हमारा पीछा करती है। एक वोट के बदले मिले बीस लाख की लूट के पीछे बाबू रामसरण का षडयंत्र उसे किसी न किसी बहाने डराते ही रहता है। कभी उसे सपने में बुआ दिखती है, जो ज्योतिषी भी प्रायश्चित में क्या-क्या कर्मकांड करवाता है। गुंडा भाई रणधीर ब्लैकमेल कर पैसे ले जाता है, सो अलग। सब कुछ करके मिला भी क्या, इधर जिंदगी भर घूस की लीद खाई और उधर बेटा विदेश में घोड़ों की लीद साफ करके पैसे कमा रहा है। ऊंची-ऊंची ख्वाहिशों और बड़े-बड़े सपनों में कैसे हम अपनी जिंदगी को लीद—मय किए जा रहे हैं, यह सोचने के लिए उपन्यास मजबूर करता है। सपने देखना और उन्हें पूरा करने की ख्वाहिश रखना बुरा तो नहीं, लेकिन अपने सपने और अपनी महत्त्वाकांक्षाएं बच्चों पर थोपना तो उनके प्रति निरा अन्याय है ही और सुख वास्तव में सुविधाओं में नहीं ही है, यह नहीं देख पाना खुद के प्रति गहरा अन्याय है।(12 जनवरी 2022)

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