तुझे एतबार-ओ-यकीं नहीं, नहीं दुनिया इतनी बुरी नहीं

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डायरी/कुमार अजय

महीने के आखिरी दिन हैं। परसाई जी के शब्दों में कहें तो पूर्णमासी का चांद कभी का डूब चुका है। बैंक खाते में बहुत कम पैसे थे। लेकिन एटीएम ने आज बटुआ भर दिया। अक्सर बड़े नोट देता है एटीएम आजकल लेकिन आज दो हजार रुपए मांगने पर उसने सौ-सौ के बीस नोट पकड़ा दिए। 46.15 रुपए बच भी गए। मुझे लगता है, यही आदर्श स्थिति है। मेरे ज्यादातर साथी यह जानते ही हैं कि मैं हिसाब-किताब में जरा कमजोर ही हूं। यूं भी खर्चे और आमदनी के बीच इतनी तलवारें खिंची रहती हैं कि बीच में पड़ने से लहूलुहान होने का पूरा खतरा रहता है। राकेश नेे पिछले दिनों कहा कि तू थोड़ा हिसाब रखा कर। वह अकाउंट्स का आदमी है। मेरे हर नफे-टोटे का पहला श्रोता है। मैं उसको मानता भी हूं। मैंने सोचा अभी उसके मार्गदर्शन में ही हिसाब-किताब का श्रीगणेश कर देते हैं। तो मैंने उसको खर्चे बताने शुरू किए और जब एक महीने के खर्च का हिसाब सैलरी से ऊपर जाने लगा तो वह बोला, ‘ठीक है, तू ऐसे ही रहने दे। हिसाब करेगा तो फालतू टेंशन ही बढेगी, चलने दे जैसे चल रहा है।’
दसवीं-ग्यारहवीं में फाकाकशी के बावजूद ग्रीटिंग कार्ड खरीदने के दिनों से ही मेरी अर्थव्यवस्था का गवाह है राकेश। उसे पता है कि बस मुझमें एक उधार मांगने का हुनर है और मेरे दोस्तों, चाहनेवालों में एक दरियादिली है, तो काम बड़े ही आराम से चल रहा है। हक से मांगो तो मिलता ही है। और जब मांगने से मिल रहा है तो फिर फिक्र किस बात की। यूं भी, आदमी कितना भी पैसा कमाकर पास रखे, हिसाब-किताब से होने वाली टेंशन से बच नहीं सकता। इतना जोखिम है तो फिर हिसाब-किताब में फंसना ही क्यों। भले लोग कहते हैं कि ऊपरवाला जब देता है तो छप्पर फाड़कर देता है। तो उस दिन का इंतजार तो है ही। ऊपरवाले की आंख न खुले, तब तक नीचेवालों से काम चलाते हैं। पैसा रहा न रहा, प्रकृति की यह कृपा मुझ पर हमेशा रही है कि कोई न कोई उधार देने वाला मिल जाता है। बाकी तो सब वैसे ही नश्वर है। बस काम निकलना चाहिए, और वह निकलता ही है। जरा-सा दिल तो खोलना ही पड़ता है। अधिकार जताने की हद तक जाना पड़ता है। बतौर पत्रकार नौकरी के दिनों में पांच सौ रुपए उधार मांगने पर वरिष्ठ साथी नरेंद्र शर्मा की मुझ पर की गई टिप्पणी याद आती है कि यह उधार भी ऐसे हक से मांगता है जैसे इसने हमें दे रखे हों और वापसी का तकादा कर रहा हो। उधार की बात चलती है तो साथी सर्वेश भी उस घटना की अक्सर याद दिलाते हैं।
पिछले दिनों कोई बात चलने पर जब मैंने कहा कि मेरे पास दोस्तों की एक लंबी फेहरिश्त है तो शेखर जी ने मजाक में कहा कि हां, जितने मांगतोड़े (वे लोग जिनका मुझ पर उधार है) हैं, उससे भी ज्यादा दोस्त हैं। मैंने स्वीकार करते हुए जवाब दिया कि हां, कुछ दोस्त अभी भी बचे हुए हैं। वास्तव में दोनों ही फेहरिश्त लंबी हैं और काॅमन भी। कुछ दोस्तों ने इस तरह दिया कि कितना भी चुका दूं, हिसाब चूकती नहीं होता। कुछ कर्ज ऐसे हैं, जो चुकाने की मेरी न हैसियत है और न ही इच्छा क्योंकि पैसे से तो उन्हें चुकाया भी नहीं जा सकता। खराब समय में एक दोस्त द्वारा टाइप सीखने के लिए दिए गए डेढ़ सौ रुपए का हिसाब तो संभव ही नहीं क्योंकि दोस्त ने दो महीने की यह फीस देते हुए यह भरोसा भी दिया था कि आगे की टाइपिंग फीस की व्यवस्था भी वे कर देंगे और टाइप सीख लेने पर किसी जाॅब का जुगाड़ भी। किसी को आश्वस्ति देना, पैसे देने से भी ज्यादा महत्वपूर्ण है। नहीं पता, जीवन में किसी को ठीक से आश्वस्त कर पाया कि नहीं लेकिन यदि ‘मैं हूं ना’ कहने वाला एक भी व्यक्ति आपके जीवन में हो तो फिर किस बात की कमी है। हालांकि चूरू के पुराने बस स्टैंड पर चाय के साथ दिए गए वह डेढ सौ रुपए उधार न थे, लेकिन दोस्तों की और मदद की बात चली तो याद आ गया। उधार से जुड़े कितने ही संस्मरण इस जीवन से जुड़े हैं। कई जगह नकारात्मक जवाब भी मिले लेकिन उन्हें जेहन में ज्यादा न रखा। हमारी नजर आशंकाओं और अनहोनी की बजाय संभावनाओं पर रहे तो ही अच्छा है। हर किसी की अपनी समझ और क्षमताएं होती हैं। फिर हमारी अपनी प्रमाणिकता में भी कोई संदेह हो ही सकता है। इसी जिंदगी में कठोर ब्याज लेने वाले लोगों का यह अहसान रहा कि उनका कोई अहसान नहीं और फिर किसी आपातकाल में तो काम आएंगे ही, यह भरोसा क्या कम है।
लोग कहते हैं कि दोस्ती-रिश्तेदारी में पैसे के लेन-देन, व्यवहार से बचना चाहिए। लेकिन कई बार वे ही बेस्ट विकल्प होते हैं। फिर सब कुछ हमारी परिपक्वता पर है। कभी एक शुभचिंतक से पैसे उधार लिए। बाद में किसी बात पर अनबन हो गई, संपर्क टूट सा गया। पैसे चुकाने का वक्त आया तो उन्होंने संपर्क किया। मैंने कह दिया, ‘जब रिलेशन ही नहीं तो पैसे वापस देने से क्या फायदा। हम इसीलिए तो व्यवहार ठीक रखते हैं कि रिलेशन खराब न हों।’ बात अगले के समझ में आई। थोड़े दिन में रिलेशन सुधर गए। पैसे तो खैर चुकाने ही थे। चुका दिए। यूं भी पैसे चुकाने की ज्यादा चिंता नहीं होती। चिंता तब हो, जब कमाकर ही देने हों। जब इधर से लेकर उधर देने हों, तो फिर टेंशन किस बात की। जब उधार लेता हूं तो लगभग साफ ही कहता हूं कि अपनी मर्जी से पता नहीं कब दूंगा लेकिन जब जरूरत हो, एकाध दिन पहले बता देना। कोई न कोई व्यवस्था हो जाएगी। और अक्सर व्यवस्था हो जाती है।
वे भोले दोस्त भी बहुत याद आते हैं जो मिलते हैं तो यह सोचकर पहले ही अपना रोना शुरू कर देते हैं कि कहीं मैं उधार न मांग लूं। खैर, यह किस गणित में फंस गया मैं भी। चाहने वालों की मेहरबानियां इतनी हैं कि सारी गणित बौनी है। सारे सूत्र फेल हैं। गणित और प्रबंधन के सूत्रों से जिंदगी को हांकने का दम भरने वाले भी कम नहीं। लेकिन उन समझदारों को अक्सर जिंदगी ऐसा उलझाती है कि उनका भी दम जल्दी ही फूलने लगता है। सारी होशियारी धरी रह जाती है। संसाधनों और सुविधाओं की चाह अक्सर ऐसी दुविधा पैदा करती है कि हम चाहें तो, दूर खड़े ही समझ पाते हैं कि सरलता और सहजता का कोई विकल्प नहीं।
और आखिर में यही कि जो दुनिया और दुनियादारी से तंग आए हैं और कहते हैं कि यहां कोई किसी का नहीं, उनसे बस इतना सा अनुरोध है कि अपना नजरिया बदलें। दुनिया बहुत खूबसूरत है और लोग बहुत अच्छे हैं। जरूरत इस बात की है कि हम एक प्रमाणिकता के साथ खुद को पेश करें और एक भरोसा सामने वाले को दिलाएं। अगले के मनोविज्ञान को समझें। एक से नहीं बात बन रही तो दूसरे को आजमाएं। कोई न कोई तो काम आएगा ही। कोई हमारे काम नहीं आ रहा तो हम किसी के काम आएं। इस दुनिया को और खूबसूरत बनाएं। जिन्होंने हमारी मदद की है, उनकी मदद तो हम क्या करेंगे लेकिन बस एक कृतज्ञता का भाव मन में रखें और दूसरे किसी जरूरतमंद की मदद कर आप यह कृतज्ञता जताएंगे तो बेशक इस दुनिया को खूबसूरत बनाने में मदद करेंगे। (पाली, 28 अगस्त 2018)

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