खुद के लेखन के प्रति निर्मम होना सीखना चाहिए- डॉ.तत्पुरुष

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चूरू। अखिल भारतीय साहित्य परिषद्, राजस्थान द्वारा गुरुवार, 10 जून को ‘मेरी साहित्य-यात्रा’ आनलाइन कार्यक्रम आयोजित हुआ। यह कार्यक्रम प्रखर चिंतक, कवि, सम्पादक एवं राजस्थान साहित्य अकादमी के पूर्व अध्यक्ष डॉ. इन्दुषेखर तत्पुरुष पर केन्द्रित था। चूरू से कार्यक्रम को संचालित करते हुए जयपुर प्रांत के उपाध्यक्ष राजेन्द्र शर्मा ‘मुसाफिर’ ने स्वागत उद्बोधन दिया। बीकानेर से गीतकार राजेन्द्र स्वर्णकार ने सरस्वती वंदना से कार्यक्रम का शुभारम्भ किया। प्रदेषाध्यक्ष डॉ. अन्नाराम शर्मा ने बताया कि इस साप्ताहिक कार्यक्रम का उद्देष्य सृजनधर्मी साहित्यकारों के सृजन से रूबरू होना व कोरोना काल में सक्रियता बनाए रखना है। साहित्यकार की एकल प्रस्तुति के बाद प्रष्नोत्तर सत्र हुआ। अपनी साहित्य यात्रा की शुरूआत के बारे में डॉ. इन्दुषेखर ने बताया कि 8-10 साल की उम्र में ही पुस्तकों के प्रति उनका कौतूहल पैदा हुआ और किषोरावस्था में ही वे साहित्यिक पुस्तकें पढने लगे। युवावस्था में ही बड़े राष्ट्रीय कार्यक्रमों में प्रस्तुतीकरण से उनका हौसला बढा। संवाद के दौरान उन्होंने राष्ट्रीय भावना से पे्ररित गीत व कविताओं की प्रस्तुति दी एवं भारतीय साहित्य परम्परा की चर्चा की। प्रो. सुरेन्द्र सोनी के सवाल के जवाब में तत्पुरुष ने कहा कि नई कविता, जिसे मुख्यतः छंदमुक्त कविता कहा जाता है, में भी राष्ट्रवाद सहित सभी मूल्यगत प्रतिमान उपस्थित हैं। चूँकि कविता का नया युग श्रव्य के साथ-साथ पाठ्य माध्यम का युग भी है, इसलिए परंपरागत रूप से श्रव्य माध्यम में रचने वाले साहित्यकारों को पाठ्य माध्यम की कविता की शक्ति को भी उदारतापूर्वक स्वीकार करना चाहिए। एक सवाल के जवाब में उन्होंने कहा कि हमारे समाज में बच्चों और युवकों को साहित्यिक संस्कार देने कि प्रणाली विकसित करनी होगी। कवियों को दोष देने से समस्या का हल नहीं होगा। कविताएं हर समय अच्छी या बुरी, हर तरह की होती रही हैं। प्रश्न यह है की परिवार, विद्यालय, सामाजिक संस्था और संस्कृति केंद्र बच्चों में साहित्यिक संस्कार कितना जाग्रत कर पा रहे हैँ? उन्होंने साहित्यकार, समाज और संस्थाओं के दायित्व पर प्रकाष डाला। तरुण साहित्यकारों के लिए संदेश देते हुए उन्होंने कहा कि वह काव्य लेखन के माध्यम से समाज को सकारात्मक दिशा की ओर ले जाने का प्रयास करे। जिस विधा में लिखना चाहते हैं, उस विधा के पूर्ववर्ती प्रसिद्ध साहित्यकारों को अच्छी तरह हृ्रदयंगम कर लेना चाहिये। अपनी परंपरा को पढ़े-जाने बिना अच्छा साहित्य लिख पाना असंभव है। लेखक को अपने लिखे के प्रति निर्मम होना भी सीखना चाहिए। आप जितना निरस्त करना सीखेंगे आपका चयन उत्कृष्ट होता चला जायेगा। कविता में शब्दचयन ऐसा कसा हुआ होना चाहिए की एक शब्द को बदलने भर से कविता लड़खड़ाने लग जाये। डॉ. तत्पुरुष ने अध्ययन की छूटती-टूटती परंपरा के बीच अध्यवसाय का संदेश दिया। शब्द और साहित्य की मनोवैज्ञानिक पड़ताल की। आज की कविता पर चर्चा के समय उन्होंने कहा कि मुक्त हृदय की अभिव्यक्ति के लिए छंद कोई बाधक नहीं है। छंद इस अभिव्यक्ति का साधक भी नहीं है। जहां छंद में स्थित लय आकर्षण का एक कारण होती है वहीं छंदरहित कविताओं में अर्थ की विशेष आभा आकर्षण का कारण होती है। आनलाइन आयोजन में खण्डवा (म.प्र.) से श्रीराम परिहार, दिल्ली से नीलम राठी, उदयपुर से चेतन औदिच्य, संरक्षक विजय नागपाल सहित करणसिंह बेनीवाल, मोनिका गौड़, डॉ. साधना जोशी, इंजीनियर आषा शर्मा आदि सत्तर प्रतिभागी उपस्थित रहे। विश्व शांति की कामना के साथ डाॅ. केषव शर्मा के शांति पाठ और धन्यवाद ज्ञापन से कार्यक्रम का समापन हुआ। आनलाइन कार्यक्रम का संचालन चैधरी बल्लूराम गोदारा राजकीय कन्या महाविद्यालय श्रीगंगानगर की एसोसियेट प्रोफेसर डॉ. बबीता काजल ने किया। पेषे से आयुर्वेद चिकित्सक डॉ. तत्पुरुष, वर्तमान में राष्ट्रीय पत्रिका ‘साहित्य परिक्रमा’ के सम्पादक है। आपको मध्यप्रदेष साहित्य अकादमी का ‘भवानीप्रसाद मिश्र अखिल भारतीय कविता पुरस्कार पुरस्कार’, राजस्थान से ‘कन्हैयालाल सेठिया सम्मान’, ‘सुमनेष जोषी पुरस्कार’, ‘साहित्य-श्री सम्मान’ सहित अनेक पुरस्कार-सम्मान दिये जा चुके हैं।

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