मुश्किल रातों से सटे हुए दिन

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डायरी/कुमार अजय

पड़ौस के किसी बच्चे के रोने की आवाज से आंखें खुली हैं। सवेरे-सवेरे स्कूल जाने का ही संकट होगा। बहुत सारे बच्चों के साथ यह दिक्कत रहती है। सच मानिए तो दिक्कत बच्चों से नहीं, हमसे है। लेकिन हम उसे समझने वाले हैं नहीं। मनोविज्ञान क्या कहता है, यह कोई मनोचिकित्सक समझाए, उससे पहले हम न समझेंगे। हां, इतना बदलाव जरूर है कि स्कूल से आमतौर पर अब हम उम्मीद करने लगे हैं कि वहां बच्चे की पिटाई नहीं हो। बड़ी अद्भुत बात है कि हममें से अधिकतर लोगों का मानना है कि उनकी जिंदगी अमुक गुरुजी द्वारा अमुक गलती पर अमुक दिन लगाए गए थप्पड़ से बनी है। जैसे थप्पड़ ही मगज में ज्ञान घुसेड़ने का एकमात्र जरिया हो। नहीं पढ़ पाने वाले बहुत से लोगों का मानना रहता है कि यदि गुरुजी की पिटाई सहन कर लेते तो आज जिंदगी कुछ और ही होती। हम जाने कैसे लोग हैं कि हमें लगता है कि दंड ही हमारा एकमात्र उपाय है। हम नहीं सोच पाते कि गुरुजनों की पढ़ाने की पिटाई शैली के कारण कितने बच्चे पढ़ाई से वंचित होते रहे हैं। प्राइमरी स्कूल में एक गुरुजी थे, जो बच्चों की पिटाई से पहले अपनी घड़ी आदि खोलकर रखते, क्योंकि पिटाई के दौरान आपा खोने से घड़ी के खुलकर गिर जाने का डर रहता था। उसके बाद वे बालक के नंगे पैर को अपनी जूतियों से दबाकर टखनों पर डंडे मारते थे। मुर्गा बनाकर पिछवाड़े पर डंडा मारने वाले कौनसे कम थे। मुझे याद है पांचवीं में एक साथी हाथ में दर्द होने के कारण होमवर्क नहीं कर पाता था और इस वजह से उसे जबरदस्त पिटाई का सामना करना पड़ता था और यह क्रम कई दिनों तक लगातार चला। अंग्रेजी के मीनिंग पूछकर एक मीनिंग नहीं आने पर दो डंडे लगाने वाले गुरुजी का भी क्या कहना। उनसे कौन पूछे कि केवल शब्दार्थ रटा देना और पाठ को हिंदी अर्थ के साथ पढ़कर सुना देना ही महज अंग्रेजी शिक्षण नहीं होता। उनसे तो वे ही गुरुजी ठीक थे, जो अपने चंद फाॅर्मूलों के दम पर दसवीं की वैतरणी गारंटी से पार करा देते थे। उन दिनों दसवीं पास करना एक बड़ी जंग जीत लेने के बराबर था। किसी सवाल पर खड़ा करने के बाद तब तक सवाल पूछते रहने वाले गणित के गुरुजी भी अद्भुत थे, जो आमतौर पर तब तक विद्यार्थी को नहीं बैठने देते थे, जब तक कोई उत्तर गलत न हो और वे दो-चार ठोले न मार लें। उन गुरुजी का तो कहना ही क्या जो आमतौर पर दिनभर गट्टे पर ताश खेलते रहते और एक दिन क्लास में आए तो एक साथ ‘अब तू पढ़’ विधि से तेरह पाठ सामाजिक विज्ञान के पढाकर चले गए। बच्चों से ही मंगाकर उनके साथ सिगरेट पी लेने वाले गुरुजी की लोकप्रियता भी गजब ही थी। खैर, दसवीं तक मैं लगभग सभी गुरुजनों का इतना प्रिय रहा कि थप्पड़ और डंडे का स्वाद कैसा होता है, नहीं जान पाया और ग्यारहवीं में आते-आते मारपीट की यह परम्परा काफी हद तक कम हो गई थी। फिर भी इतिहास के उन गुरुजी को वंदन, अभिनंदन करने को जी चाहता है जो हरेक बात में मेरे तर्क-वितर्क-कुतर्क से परेशान होकर अक्सर कहते थे कि तू बैठ जा यार, तुझे तो पढ़ना नहीं है, औरों को तो पढ़ लेने दे।
खैर, मुझे लगता है कि सामान्यतः बच्चे के स्तर पर जाकर यदि शिक्षक सोचे, पढाए और उसकी मूल समस्या पर गौर करे तो ऐसा कोई कारण नहीं रहेगा कि बच्चे की समझ में कोई चीज आए ही नहीं। लेकिन हम क्लास में जाते हैं और अपने स्तर से, अपनी इच्छा से, अपने ढंग से पढाना शुरू कर देते हैं और बच्चा जब उसे पकड़ नहीं पाता तो उसकी पिटाई या उपेक्षा या ताने शुरू हो जाते हैं। किस अंतराल के कारण ऐसा हुआ है, हम यह सोचने की जहमत नहीं उठाना चाहते। चाहे शिक्षक हों या अभिभावक, बच्चे की पढाई और अन्य किसी मसले पर उसकी पिटाई के प्रकरण को देखना चाहें तो शायद हम आसानी से देख पाएं कि असफलता हमारी है और पिटाई बच्चे की हो रही है क्योंकि अब हम खुद को तो पीट नहीं सकते। जब कोई बच्चा कुछ नहीं समझ पा रहा है तो इस बात का ज्यादा औचित्यपूर्ण और वास्तविक पक्ष यह है कि हम उसे समझा नहीं पा रहे हैं। एक सामान्य बच्चे के पास ऐसा कोई कारण नहीं कि सही ढंग से बताए, समझाए जाने पर भी वह समझ और सीख नहीं पाए। इस बात को समझने का हमारे पास कोई मनोवैज्ञानिक ढंग नहीं है। मैं याद कर पाता हूं कि जब प्राइवेट स्कूल में शिक्षक था, तब ऐसे ही कमजोर क्षणों में कुछ बच्चों की पिटाई कर देता था और एकाध तो ऐसे थे, जिन्हें पीटने का रोज का ही नियम सा हो गया था। वे बच्चे आज मेरे बारे में क्या सोचते होंगे, वे ही जानें लेकिन मैं अक्सर अपराध बोध से ग्रस्त रहता हूं। वास्तव में, उन बच्चों को हमारी सबसे ज्यादा जरूरत होती है, जिन्हें हम सर्वाधिक नापसंद करते हैं। आजकल बहुत से शिक्षक साथियों की बड़ी अजीब सी शिकायत रहती है कि न बच्चों को पीट सकते हैं और न ही फेल कर सकते हैं, फिर क्या खाक पढाएं। मानो साधन और साध्य सब छिन गए हों। एक पिछड़े इलाके के सरकारी स्कूल में जब मैं सिर्फ आठ बच्चों वाली सातवीं का कक्षाध्यापक था तो प्रधानाध्यापक महोदय का दबाव यह रहा कि सभी बच्चों को सातवीं में ही फेल कर दिया जाए, ताकि वे आठवीं में हमारा बोर्ड का रिजल्ट नहीं बिगाड़ दें। मुझसे यह न करते बना और सारे बच्चे पास कर दिए गए। अगले साल मैं वहां न था लेकिन पता चला कि आठ में से सात बच्चे आठवीं की परीक्षा पास कर चुके थे, जबकि हम एक साल पहले ही उनका गला घोंट देना चाहते थे।
खैर, उठकर बाहर झांकू, देखूं, उससे पहले ही बच्चे के रोने की आवाज बंद हो गई है। यूं भी गली में मेरा अधिक परिचय नहीं कि जाकर किसी रोते हुए बच्चे को उसके मां-पिता की मर्जी के खिलाफ हंसाया जाए। हां, बच्चे के रोने से आरव याद आ गया है। शुरू-शुरू में स्कूल जाने के नाम पर कितना रोता था वह। भागकर छुप जाता था और कितने बहाने, नहीं जाने के कितने जतन करता था। यूं आरव से तुम्हारी याद ताजा हो गई है। मोबाइल देख रहा हूं। सुबह के 6.44 हुए हैं। अभी छह बजे ही तो आंख लगी थी। कुछ रातें कितनी मुश्किल होती हैं ना। और उनसे सटे हुए दिन और भी ज्यादा कठोर। कभी तुम्हारी याद जिंदगी को कितना खूबसूरत बना देती है, तो कभी एक क्षण भी कितना भारी हो जाता है। इस शहर में एक साल होने को है। न कोई उत्साह लेकर आया था, न अब कोई उत्साह है। दिन-दिन शहर और ही अजनबी हुआ जाता है। शहर ही क्यों, एक विरक्ति-सी जैसे पूरी दुनिया को ही अजनबी बना रही है। बड़ा अजीब सा है दिल का मौसम। यूं अजनबी होने के अपने फायदे हैं। शहर बिना किसी औपचारिकता के खुलता है कभी-कभी। उस दिन पार्क में मिले ‘पागल’ की तरह। लोग उसे पागल ही मानते हैं। पूरे शहर की कुंडली जैसे उसने अपने दिमाग में बसा रखी थी। जिस भी बड़े आदमी का नाम लो, कितनी सारी बातें उगल देता था उसी की हकीकत से जुड़ी। हालांकि अब हरेक की एक नकारात्मक छवि उसके मन में है। जब समय बुरा होता है तो हमें हर कोई अपना दुश्मन नजर आने लगता है। इराक-अमेरिका युद्ध को भी कहीं न कहीं हम अपने दुर्भाग्य से जोड़ लेते हैं। यह दुनियावी हकीकत है भी कि यदि आपका समय खराब है तो लोग दूरी बना लेते हैं लेकिन इसे पूरा सत्य नहीं कहा जा सकता है। बुरे समय में काम आने वाले लोग भी कम नहीं होते। मेरे अपने जीवन में ऐसे लोगों की बड़ी फेहरिश्त है, जिन्होंने मुझे बिना किसी स्वार्थ के सपोर्ट किया। मेरा अपना अनुभव है कि आदमी खुद को एक प्रमाणिकता और औचित्य के साथ पेश करे तो लोग साथ देने को तैयार रहते हैं। आत्म सम्मान को खोए बिना भी हम ऐसा कर सकते हैं। सारा खेल हौसले और समझ का है बस। जरूरत के समय किसी अन्य व्यक्ति की मदद कर हम अपने सहायकों के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित कर सकते हैं। परस्पर सहयोग और परोपकार के इस काम की मार्केटिंग भी बहुत जरूरी है क्योंकि दुनियादारी को लेकर बहुत बुरी धारणाएं हमारे भीतर घर कर गई हैं। बाकी हर कोई हर किसी के लिए एक जैसा नहीं हो सकता। कितनी सारी पूर्व-धारणाओं और पूर्वग्रहों के साथ हम जीते हैं। सामान्य व्यवहार में बहुत अच्छे व्यक्ति अक्सर जाति और धर्म के नाम पर घृणित वक्तव्य देते नजर आते हैं। उन्हें अच्छा कहें या बुरा, समझ पाना अजीब सा है। किराए का मकान ढूंढते हुए अक्सर इस विडंबना को झेला है। मकान मालिकों के मुंह से सुना है कि आपको मकान देने में कोई दिक्कत नहीं, हां एससी-एसटी या मुसलमान हमें पसंद नहीं। अक्सर देखा है कि एससी-एसटी के साथियों को भी बहुत सारे इलाकों में हिंदू परिवारों में मकान किराए पर नहीं मिलता है। आखिर किसी मुसलमान के घर में उन्हें पनाह मिलती है। अपार्टमेंट में फ्लैट्स को लेकर भी ऐसे ही हालात हैं। बिल्डर चाहते हैं कि तथाकथित ऊंचे लोगों से ही उनकी शुरुआत हो। कोई ‘अछूत’ आ गया तो फिर बाकी फ्लैट्स की रेट गिर जाएंगी। जहां ऐसा नहीं है, वहां ऐसा बताए जाने पर लोग यकीन नहीं करना चाहते। वे समझाते हैं और कभी-कभी खुद भी समझते हैं कि जान-बूझकर ऐसी धारणाएं फैलाई जा रही हैं, जबकि थोड़ा-बहुत हम सभी जानते हैं कि कुछ तो गड़बड़ है ही। पाली में ही एक साथी से सुना कि इलाके में एक गांव है, जहां एससी-एसटी के व्यक्ति मोटरसाईकिल पर सवार होकर गांव से नहीं गुजर सकते। सच तो उस गांव में जाकर ही जाना जा सकता है। दिल कहता है कि यह झूठ हो लेकिन यह झूठ होगा तो भी घोड़ी से दूल्हों को उतारने और मंदिरों में प्रवेश को लेकर हो रही घटनाएं तो हम अक्सर सुन ही रहे हैं।
कल ही की तो बात है। आॅफिस में एक अच्छे-भले रेप्युटेड व्यक्ति आए। बातों ही बातों में बोले, ‘आपको अपने नाम के साथ सरनेम लगाना चाहिए वरना लोग एससी का समझ लेते हैं।’ मैंने मुस्कराकर कहा, ‘उससे क्या फर्क पड़ता है?’ तो थोड़ा झेंप गए और बोले, ‘नहीं, फर्क तो क्या पड़ता है, बस बता रहा हूं।’ वैसे यह सलाह देने वाले वे पहले व्यक्ति न थे लेकिन इस वाकये से उस दोस्त की याद आ गई जिसने पहली ही मुलाकात में हाथ मिलाते हुए अपने परिचय में कहा था, ‘पारीक!’ मैंने पूछा, ‘नाम?’ तो बोले, ‘देवेंद्र!’ परिचय के इस ढंग पर दोस्त का तर्क था कि पहले नाम बताओ तो लोग सरनेम पूछते ही हैं, तो मैं पहले सरनेम बता देता हूं। छोटी-छोटी बातें अपने समय की कितनी बड़ी विद्रूपताओं का परिचय लेकर आती हैं। (1 दिसंबर 2018)

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